अधूरी कहानी ....


मेरी सांसे धीरे-धीरे रूक रही होगीं। नदी की गीली रेत की तरह मेरी जिदंगी की मुट्ठी से मेरी सभी ख़्वाहिशें और सभी सपने एक - एक कर निकलते जा रहे होगें और उस पल मैं बिल्कुल भी नहीं सोचूंगा कि कुछ दिन की जिदंगी और जी लूँ। बस उस समय सब कुछ जल्दी से खत्म हो जाना चाहिए , सूरज शाम के बजाय दिन मे ही ढल जाना चाहिए। शाम के 4 बजे ही अंधेरी काली अमावस की रात हो जानी चाहिए । पक्षी मेरे ऊपर उडने की बजाय मेरे पास बैठ कर मुझे विदाई देते हुए पूछा रहें हो.... "क्यूँ पंडित ,जी ली क्या जिंदगी तूने अपने उसूलों पर ? " और वही पास में नदी किनारे बैठी होगी तुम। धीरे-धीरे मुस्करा कर मेरी कहानी को खत्म होते हुऐ देख रही होगी।

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