प्रेम की ख़ामोशी ...


अच्छा सुनो ना !!! न जाने कौन से फासले है मेरे और तुम्हारे दरमियान...सब कुछ कितना ठहरा हुआ है पर जिन लम्हों में तुम मेरे साथ थी उसी में तुम्हे जी लिया...ज़िन्दगी को जी लिया. प्रेम को जी लिया..! मेरा इंतज़ार बहुत लम्बा है ..मुझे तुम्हारे पुकार की तमन्ना रहती है . एक अधूरी आस..तुम पुकार लेती तो मन कह लेता कि हाँ, मैं हूँ...तुम हो और है हमारा प्रेम! मैंने हर जगह देखा तुम्हे...सपनों में ,भीड़ में,अकेले में,मौन में,कौलाहल में..और भी पता नहीं कहाँ कहाँ..तुम ही तो हो ..!!पता नहीं किस जन्म का नाता है तुमसे.. तुम मिली...और एक कथा शुरू हुई....मेरी,हाँ ! शायद सिर्फ मेरी..!! मुझे लिखना अच्छा लगता है...और ख़ास कर तुम्हे लिखना..और जब मैं तुम्हे लिखता हूँ तो बस सिर्फ तुम ही तो होती हो .मैं तुममे मौजूद उस जीवट स्त्री के प्रेम में हूँ .! सच कहूँ तो मुझे तुमसे तब प्रेम नहीं हुआ,जब मैंने तुम्हे देखा है ..पर हाँ,मुझे प्रेम हुआ तुमसे जब मैंने तुम्हे समझा है ..और उसके बाद तो हर रोज ही मुझे तुमसे प्रेम हुआ.. नदी में तुम,रास्तो पर तुम,मंदिर में तुम ,धरती, जल और आकाश...हर जगह बस तुम...प्रेम में जब इंसान होता है तो कुछ ऐसा ही तो लगता है...मुझे भी लगा....! अच्छा,एक बात बताओ..जब तुम अकेली होती हो तो क्या मेरे शब्दों की गूँज सुनाई देती है तुम्हे? क्या किसी ने तुमसे पहले कहा है कि जब तुम खामोश रहती हो तो तब भी तुम कुछ कहती ही रहती हो... तुम जानती हो न कि मैं तुम्हारी ख़ामोशी को भी सुन लेता हूँ !!! हो सके तो कभी मेरी खामोशी को भी सुन लेना !!!

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